।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण दशमीवि.सं.२०७१सोमवार
श्रावण सोमवार-व्रत, एकादशी-व्रत कल है
कर्म-रहस्य



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 इसलिये शुभ और अशुभ कर्मोंमें एक कायदाकानून नहीं है । अगर ऐसा नियम बन जाय कि भगवान्‌के अर्पण करनेसे ऋण और पाप-कर्म छूट जायँ तो फिर सभी प्राणी मुक्त हो जायँपरन्तु ऐसा सम्भव नहीं है । हाँइसमें एक मार्मिक बात है कि अपने-आपको सर्वथा भगवान्‌के अर्पित कर देनेपर अर्थात् सर्वथा भगवान्‌के शरण हो जानेपर पाप-पुण्य सर्वथा नष्ट हो जाते हैं* (गीता १८ । ६६) ।

दूसरी शंका यह होती है कि धन और भोगोंकी प्राप्ति प्रारब्ध कर्मके अनुसार होती है‒ऐसी बात समझमें नहीं आतीक्योंकि हम देखते हैं कि इन्कम-टैक्ससेल्स-टैक्स आदिकी चोरी करते हैं तो धन बच जाता है और टैक्स पूरा देते हैं तो धन चला जाता है तो धनका आना-जाना प्रारब्धके अधीन कहाँ हुआ यह तो चोरीके ही अधीन हुआ !

इसका समाधान इस प्रकार है । वास्तवमें धन प्राप्त करना और भोग भोगना‒इन दोनोंमें ही प्रारब्धकी प्रधानता है । परन्तु इन दोनोंमें भी किसीका धन-प्राप्तिका प्रारब्ध होता हैभोगका नहीं और किसीका भोगका प्रारब्ध होता है,धन-प्राप्तिका नहीं तथा किसीका धन और भोग दोनोंका ही प्रारब्ध होता है । जिसका धन-प्राप्तिका प्रारब्ध तो है पर भोगका प्रारब्ध नहीं हैउसके पास लाखों रुपये रहनेपर भी बीमारीके कारण वैद्यडॉक्टरके मना करनेपर वह भोगोंको भोग नहीं सकताउसको खानेमें रूखा-सूखा ही मिलता है । जिसका भोगका प्रारब्ध तो है पर धनका प्रारब्ध नहीं है,उसके पास धनका अभाव होनेपर भी उसके सुख-आराममें किसी तरहकी कमी नहीं रहती । उसको किसीकी दयासे,मित्रतासेकाम-धंधा मिल जानेसे प्रारब्धके अनुसार जीवन-निर्वाहकी सामग्री मिलती रहती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे

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* देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
    सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं    गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥
                                                      (श्रीमद्धा ११ । ५ । ४१)

‘राजन् ! जो सारे कार्योंको छोड़कर सम्पूर्णरूपसे शरणागतवत्सल भगवान्‌की शरणमें आ जाता हैवह देवऋषि,कुटुम्बीजन और पितृगण‒इन किसीका भी ऋणी और सेवक नहीं रहता ।’

 सर्वथा त्यागीको भी अनुकूल वस्तुएँ बहुत मिलती हुई देखी जाती हैं (यह बात अलग है कि वह उन्हें स्वीकार न करे) । त्यागमें तो एक और विलक्षणता भी है कि जो मनुष्य धनका त्याग कर देता है,जिसके मनमें धनका महत्त्व नहीं है और अपनेको धनके अधीन नहीं मानताउसके लिये धनका एक नया प्रारब्ध बन जाता है । कारण कित्याग भी एक बड़ा भारी पुण्य हैजिससे तत्काल एक नया प्रारब्ध बनता है ।

धान नहीं धीणों नहीं    नहीं रुपैयो रोक ।
जिमण बैठे रामदासआन मिलै सब थोक ॥