संतोंका स्वभाव
संतोंके अभिमान नहीं होता । वे भगवान्के प्यारे होते हैं और
सबको बड़ा मानते हैं ।
सीय राममय सब जग जानी
।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
(मानस, बालकाण्ड, दोहा ८ । २)
जितने पुरुष हैं, वे हमारे रामजी हैं और जितनी
स्त्रिया हैं, वे सब सीताजी‒माँ हैं । इस प्रकार उनका भाव होता है । ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत’‒वे सबको भगवान् मानते हैं, इस कारण उनके भीतर अभिमान नहीं आता । वे ही भगवान्को प्यारे लगते हैं; क्योंकि ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’‒वे किसके साथ विरोध करें ।
श्रीचैतन्य-महाप्रभुके समयमें जगाई-मधाई नामके पापी थे । उनको
नित्यानन्दजीने नाम सुनाया तो उन्हें खूब मारा । मार-पीट सहते हुए वे कहते कि तू हरि
बोल, हरि बोल । उनपर भी कृपा की । चैतन्य-महाप्रभुने उनको भक्त बना
दिया । उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि जो अधिक पापी, धनी एवं पण्डित होते हैं, उनपर विशेष कृपा करनी चाहिये; क्योंकि उनको चेत कराना बड़ा मुश्किल होता है । और उपायोंसे तो ये चेतेंगे नहीं, भक्तिकी बात सुनेंगे ही नहीं; क्योंकि उनके भीतर अभिमान भरा
हुआ है । चैतन्य-महाप्रभुने ऐसे लोगोंके द्वारा भी भगवन्नाम उच्चारण करवाकर कृपा की
। भगवान्के नाम-कीर्तनमें वे सबको लगाते । पशु-पक्षीतक खिंच जाते उनके भगवन्नाम-कीर्तनमें
।
‘जग पालक बिसेषि जन त्राता’‒ऐसे नाम महाराज दुष्टोंका भी
पालन करनेवाले, अभिमानियोंका अभिमान दूर कराकर भजन करानेवाले एवं साधारण मनुष्योंको
भी भगवान्की तरफ लगानेवाले हैं । ये सबको लगाते हैं कि सब भगवान्के प्यारे बन जायँ
। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’‒केवल नीरोग ही नहीं, भगवान्के प्यारे भक्त बन जायँ‒यह उन नाम-महाराजकी इच्छा रहती है । इसी प्रकार
संतोंके दर्शनसे भी बड़ा पुण्य होता है, बड़ा भारी लाभ होता है । क्यों
होता है ? उनके हृदयमें भगवद्बुद्धि बनी रहती है और वे सबकी सेवा करना
चाहते हैं । इस कारण उनके दर्शनमात्रका असर पड़ता है । स्मरणमात्रका एवं उनकी बातमात्रका
असर पड़ता है । क्योंकि उनके हृदयमें भगवद्भाव और सेवा-भाव
लबालब भरे रहते हैं । इसलिये उनके दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिन्तन आदिका लोगोंपर असर पड़ता है, लोगोंका बड़ा भारी कल्याण होता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे |