।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७१, मंगलवार

मानसमें नाम-वन्दना



 (गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रवचन‒ ४

अमृतमय  ‘रामनाम

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के ।
कमठ सेष सम  धर  बसुधा  के ॥
                                                    (मानस, बालकाण्ड, दोहा २० । ७)

जीवका कल्याण हो जाय, इससे ऊँची कोई गति नहीं है । ऐसी जो श्रेष्ठ गति (मुक्ति) है, उसको सुगति कहते हैं, परम सिद्धि भी वही है, जो इस रामनामसे प्राप्त हो जाती है । स्वाद तोष समअमृतके स्वाद और तृप्तिके समान रामनाम है । जैसे, भोजन किया जाता है तो उसमें बढ़िया रस आता है । भोजन करनेके बादमें तृप्ति और सन्तोष होता है, ऐसे ही यह रामनाम सुगति और सुधाके स्वाद और तोष (तृप्ति) के समान है । मानो मधुरिमा और सन्तोष है । राकहते ही मुख खुलता है और कहते ही बन्द होता है । भोजन करते समय मुख खुलता है और तृप्ति होनेपर मुख बन्द हो जाता है । इस प्रकार राऔर अमृतके स्वाद और तोषके समान हैं ।

भोजनकी परीक्षाके लिये जीभपर रस लेकर तालुसे लगानेपर पता लग जाता है कि उसमें रस कैसा है । जहाँसे रस लिया जाता है, वहाँसे ही का उच्चारण होता है । कहनेमें सुधाका स्वाद आता है और कहनेमें तोष हो जाता है । राम, राम, राम ऐसे कहते हुए एक बहुत विलक्षण रस आता है । उससे सदाके लिये तृप्ति हो जाती है । नाममें रस आनेपर फिर दूसरे रसोंकी जरूरत नहीं रहती । जिनको भगवन्नाममें रस आ जाता है, उनकी संसारके विषयोंसे रुचि हट जाती है । जबतक संसारके विषयोंकी रुचि रहती है, तबतक भगवन्नाममें रस नहीं आता है । भगवान्‌के नाममें जब रस आना शुरू हो जाता है, फिर सब रस फीके हो जाते हैं ।

श्रीगोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒यदि रामनाम मेरेको मीठा लगता तो सब-के-सब रस फीके हो जाते। भोजनके छः रस और काव्यके नौ रस होते हैं । ये सब फीके हो जाते हैं; क्योंकि ये सब बाह्य हैं । उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थोंसे मिलनेवाला रस नीरसतामें बदल जाता है । विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्संसारमें जितने रस हैं, वे विषय और इन्द्रियोंके सम्बन्धसे होनेवाले हैं । वे आरम्भमें अमृतके समान लगते हैं, परंतु परिणामे विषमिवपरिणाममें जहरकी तरह होते हैं । इस तरफ विचार न करनेसे मनुष्य विषयोंमें फँसता है । जो विचारवान् सात्त्विक पुरुष होते हैं, वे पहले परिणामकी तरफ देखते हैं, इस कारण वे फँसते नहीं ।

                            सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं
                                  सुदीर्घकालेऽपि न याति विक्रियाम् ।

सज्जनो ! ये बातें ऐसे ही केवल कहने-सुननेकी नहीं हैं, समझनेकी हैं और समझकर काममें लानेकी हैं । आदमीको सोच-समझकर काम करना चाहिये । विचारपूर्वक काम करनेवालेको परिणाममें कष्ट नहीं उठाना पडता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे