।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७१, शुक्रवार
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य

                     
 (गत ब्लॉगसे आगेका)

मन-बुद्धि प्रकृतिके अंश हैं और स्वयं परमात्माका अंश है । अतः परमात्माके शरण होनेमें मन-बुद्धि आदि किसीकी किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है, प्रत्युत स्वयंकी जरूरत है । परमात्माके शरण स्वयं होता है, मन-बुद्धि नहीं । तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिमें बोध और भावकी अपेक्षा है, करणकी अपेक्षा नहीं है । जहाँ स्वयंसे काम होता है, वहाँ करणकी अपेक्षा नहीं होती ।

एक पर’ का आश्रय (पराश्रय) है और एक स्व’ का आश्रय (स्वाश्रय) है । आठ भेदोंवाली अपरा प्रकृति (पंचमहाभूत, मन, बुद्धि तथा अहंकार) अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म, तथा कारण-तीनों शरीर तथा संसार पर’ है और इनका आश्रय पराश्रय’ है । क्रिया और पदार्थका आश्रय स्थूल-शरीरका आश्रय है, मन-बुद्धिका अर्थात् चिन्तन, मनन, ध्यान, आदिका आश्रय सूक्ष्मशरीरका आश्रय है और अहंकारका, स्वभावका एवं समाधिका आश्रय कारण शरीरका आश्रय है ।

स्वरूपका आश्रय भी स्वाश्रय’ है और परमात्माका आश्रय भी स्वाश्रय’ है[*] कारण कि स्व’ के दो अर्थ होते हैं‒स्वयं (स्वरूप) और स्वकीय । परमात्मा स्वकीय हैं; क्योंकि उनका हमारे साथ अखण्ड सम्बन्ध है । तात्पर्य है कि जो किसी भी देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें हमारेसे अलग नहीं हो सकता और हम उससे अलग नहीं हो सकते, वही स्वकीय’ (अपना) हो सकता है । जो प्रत्येक देश, काल, क्रिया, वस्तु आदिमें निरन्तर हमारेसे अलग हो रहा है, उसका आश्रय (पराश्रय) लेनेके कारण ही स्वकीयका आश्रय (स्वाश्रय) अनुभवमें नहीं आ रहा है ।

जीवके बन्धनका मुख्य कारण है‒अहंकारका आश्रय (पराश्रय) । अहंकारका आश्रय ही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है‒कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । अहंकारका संग ही गुणोंका संग है; क्योंकि अहंकार भी सात्त्विक, राजस और तामस‒तीनों गुणोंवाला होता है‒वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिवृत्’ (श्रीमद्भा ११ । २४ । ७)

   (अपूर्ण)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे



[*] आश्रय, अवलम्बन, अधीनता, प्रपत्ति और सहारा‒ये सभी शब्द शरणागति’ के पर्याय हैं; परन्तु इनमें थोड़ा भेद है; जैसे‒पृथ्वीके आधारके बिना हम रह नहीं सकते, ऐसे ही भगवान्‌के आधारके बिना हम रह न सकें‒यह भगवान्‌का आश्रय’ है । हाथकी हड्डी टूट जाय तो डाक्टरलोग उसपर पट्टी बाँधकर उसको गलेके सहारे लटका देते हैं, ऐसे ही भगवान्‌का सहारा लेने (पकड़ने) का नाम अवलम्बन’ है । भगवान्‌को मालिक मानकर उनका दास बन जाना अधीनता’ है । भगवान्‌के चरणोंमें गिर जाना प्रपत्ति’ है । जलमें डूबते हुएको किसी वृक्ष, शिला आदिका आधार मिल जाय, ऐसे ही संसार-समुद्रमें डूबनेके भयसे भगवान्‌का आधार लेना सहारा’ है ।