श्रीपरमात्माकी इस विचित्र सृष्टिमें मनुष्य-शरीर एक अमूल्य
एवं विलक्षण वस्तु है । यह उन्नति करनेका एक सर्वोत्तम साधन है । इसको प्राप्त करके
सर्वोत्तम सिद्धिके लिये सदा सतत चेष्टा करनी चाहिये । इसके लिये सर्वप्रथम आवश्यकता
है‒ध्येयके निश्चय करनेकी । जबतक मनुष्य जीवनका कोई ध्येय‒उद्देश्य
ही नहीं बनाता, तबतक वह वास्तवमें मनुष्य कहलाने योग्य ही नहीं; क्योंकि
उद्देश्यविहीन जीवन पशु-जीवनसे भी निकृष्ट है किंतु जैसे मनुष्य-शरीर सर्वोत्तम है,
वैसे इसका उद्देश्य भी सर्वोत्तम ही होना चाहिये । सर्वोत्तम
वस्तु है, परमात्मा । इसलिये मानव-जीवनका सर्वोत्तम ध्येय है‒परमात्माकी
प्राप्ति, जिसके लिये भगवान् श्रीकृष्णने कहा है‒
यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः ।
इस परमात्माकी प्राप्तिके लिये सबसे पहला और प्रधान
साधन है‒‘जीवनके समयका सदुपयोग ।’ समय बहुत ही अमूल्य वस्तु है । जगत्के लोगोंने पैसोंको तो बड़ी
वस्तु समझा है, किन्तु समयको बहुत ही कम मनुष्योंने मूल्य दिया है;
पर वस्तुतः विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि समय बहुत ही
मूल्यवान् वस्तु है । विचार कीजिये‒अपना समय देकर हम पैसे
प्राप्त कर सकते हैं, पर पैसे देकर समय नहीं खरीद सकते । अन्तकालमें जब आयु शेष हो जाती है,
तब लाखों रुपये देनेपर भी एक घंटे समयकी कौन कहे एक मिनट भी
नहीं मिल सकता । समयसे विद्या प्राप्त की जा सकती है,
पर विद्यासे समय नहीं मिलता । समय पाकर एक मनुष्यसे कई मनुष्य
बन जाते हैं, अर्थात् बहुत बड़ा परिवार बढ़ सकता है;
पर समस्त परिवार मिलकर भी मनुष्यकी आयु नहीं बढ़ा सकता । समय
खर्च करनेसे संसारमें बड़ी भारी प्रसिद्धि हो जाती है,
पर उस प्रसिद्धिसे जीवन नहीं बढ़ सकता । समय लगाकर हम जमीन-जायदाद,
हाथी-घोड़े धन-मकान आदि अनेक चल-अचल सामग्री एकत्र कर सकते हैं,
पर उन सम्पूर्ण सामग्रियोंसे भी आयु-वृद्धि नहीं हो सकती । यहाँ
एक बात और ध्यान देनेकी है कि रुपये, विद्या, परिवार, प्रसिद्धि, अनेक सामग्री आदिके रहते हुए भी जीवनका समय न रहनेसे मनुष्य
मर जाता है, किंतु उम्र रहनेपर तो सर्वस्व नष्ट हो जानेपर भी मनुष्य जीवित
रह सकता है । इसलिये जीवनके आधारभूत इस समयको बड़ी ही सावधानीके
साथ सदुपयोगमें लाना चाहिये, नहीं तो यह बात-ही-बातमें बीत जायगा, क्योंकि
यह तो प्रतिक्षण बड़ी तेजीके साथ नष्ट हुआ जा रहा है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे
[*] आश्रय, अवलम्बन, अधीनता, प्रपत्ति और सहारा‒ये सभी शब्द ‘शरणागति’ के पर्याय हैं; परन्तु इनमें थोड़ा भेद है; जैसे‒पृथ्वीके आधारके बिना हम रह नहीं सकते, ऐसे ही भगवान्के आधारके बिना हम रह न सकें‒यह भगवान्का ‘आश्रय’ है । हाथकी हड्डी टूट जाय तो डाक्टरलोग उसपर पट्टी बाँधकर उसको गलेके सहारे लटका देते हैं, ऐसे ही भगवान्का सहारा लेने (पकड़ने) का नाम ‘अवलम्बन’ है । भगवान्को मालिक मानकर उनका दास बन जाना ‘अधीनता’ है । भगवान्के चरणोंमें गिर जाना ‘प्रपत्ति’ है । जलमें डूबते हुएको किसी वृक्ष, शिला आदिका आधार मिल जाय, ऐसे ही संसार-समुद्रमें डूबनेके भयसे भगवान्का आधार लेना ‘सहारा’ है ।
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