।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७१, रविवार
समयका मूल्य और सदुपयोग


             



(गत ब्लॉगसे आगेका)

रुपये आदि तो जब हम खर्च करते हैं तभी खर्च होते हैं, नहीं तो तिजोरीमें पड़े रहते हैं, पर समय तो अपने-आप ही खर्च होता चला जा रहा है, उसका खर्च होना कभी बंद होता ही नहीं । अन्य वस्तुएँ तो नष्ट होनेपर भी पुनः उत्पन्न की जा सकती हैं, पर गया हुआ समय किसी प्रकार भी लौटाया नहीं जा सकता । अतः हमें उचित है कि बचे हुए समयके एक क्षणको भी निरर्थक नष्ट न होने देकर अति-कृपणके धनकी तरह उसकी कीमत समझकर उसे ऊंचे-से-ऊंचे काममें लगायें । प्रथम श्रेणीका सर्वोत्कृष्ट काम है‒पारमार्थिक पूँजीका संग्रह । दूसरी श्रेणीका काम है‒सांसारिक निर्वाहके लिये न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन । इनमेंसे दूसरी श्रेणीके काममें लगाया हुआ समय भी भावके सर्वथा निष्काम होनेपर पहली श्रेणीमें ही गिना जा सकता है । इसके लिये हमें समयका विभाग कर लेना चाहिये, जैसे कि भगवान्‌ने कहा है‒

युक्ताहारविहारस्य    युक्तचेष्टस्य   कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
                                                  (गीता ६ । १७)

‘दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है ।’

इस श्लोकमें अवश्य करनेकी चार बातें बतलायी गयी हैं‒१. युक्ताहारविहार, २. शरीर-निर्वाहार्थ उचित चेष्टा, ३. यथायोग्य सोना और ४. यथायोग्य जागना । पहले विभागमें शरीरको सशक्त और स्वस्थ रखनेके लिये शौच, खान, घूमना, व्यायाम, खान-पान, औषध-सेवन आदि चेष्टाएँ सम्मिलित हैं । दूसरा विभाग है‒जीविका पैदा करनेके लिये; जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदिके लिये अपने-अपने वर्ण-धर्मके अनुसार न्याययुक्त कर्तव्यकर्मोंका पालन करना बतलाया गया है । तीसरा विभाग है‒शयन करनेके लिये, इसमें कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं है । अब चौथा प्रमुख विभाग है‒जागनेका । इस श्लोकमें ‘अवबोध’ का अर्थ तो रात्रिमें छः घंटे सोकर अन्य समयमें जगते रहना और उनमें प्रातः-सायं दिनभरमें छः घंटे साधन करना है । परंतु ‘अवबोध’ से यहाँ वस्तुतः मोहनिद्रासे जगकर परमात्माकी प्राप्ति करनेकी बातको ही प्रधान समझना चाहिये । श्रीशंकराचार्यजीने भी कहा है‒‘जागर्ति को वा सदसद्विवेकी ।’

अब इसपर विचार कीजिये । हमारे पास समय है चौबीस घंटे और काम है चार । तब समान विभाग करनेसे एक-एक कार्यके लिये छः-छः घंटे मिलते हैं । उपर्युक्त चार कामोंमें आहार-विहार और शयन‒ये दो तो खर्चके काम हैं और व्यापार तथा अवबोध (साधन करना)‒ये दो उपार्जनके काम हैं । इस प्रकार खर्च और उपार्जन दोनोंके लिये क्रमशः बारह-बारह घंटे मिलते हैं । इनमें लगानेके लिये हमारे पास पूँजी हैं दो‒एक समय और दूसरा द्रव्य; इनमेंसे द्रव्य तो लौकिक पूँजी है और समय अलौकिक पूँजी है । आहार-विहारमें तो द्रव्यका व्यय होता है और शयनमें समयका । इसी प्रकार जीविका और अवबोध (साधन करने) में केवल समयका व्यय होता है; किंतु अलौकिक पूँजीरूप समयका तो चारोंमें ही व्यय होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे