।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
माघ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७१, मंगलवार
समयका मूल्य और सदुपयोग


      

(गत ब्लॉगसे आगेका)

क्योंकि काम-काज करते समय भी यदि निष्कामभाव रखकर भगवदाज्ञासे न्यायपूर्वक कर्तव्यपालन किया जाय तो वह समय भी भजनमें ही लगा समझा जा सकता है तथा खान-पानादि भी केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे ही किया जाय तो वह भी एक तरहसे भजन ही है एवं निद्रा भी भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे ली जाय तो वह भी भजनमें ही सम्मिलित हो सकती है । इनमें भी साथ-साथ भगवान्‌के नामका जप और स्वरूपका ध्यान तो करते रहना ही चाहिये । इस प्रकार उद्देश्य एक बन जानेपर तो सभी कार्य भगवत्प्राप्ति करानेवाले हो जाते हैं ।

जैसे किसी नदीके बहुत बड़े प्रवाहको भी जब नहरें निकालकर अनेक शाखाओंके रूपमें विभाजित कर दिया जाता है, तब वह बहुत बड़ा प्रवाह भी अपने एकमात्र अन्तिम लक्ष्य समुद्रतक नहीं पहुँच पाता और पृथ्वीपर ही इधर-उधर बिखरकर समाप्त हो जाता है; किंतु किसी नदीका एक साधारण प्रवाह भी यदि अपने लक्ष्य समुद्रकी ओर एक ही रूपसे चलता रहता है तो अन्यान्य छोटे-छोटे निर्झर आदिकी अनेक शाखाओंके प्रवाह भी उसीमें आकर सम्मिलित होते रहते हैं और वही बहुत बड़ा प्रवाह बनकर अपने गन्तव्य लक्ष्य समुद्रतक पहुँच जाता है ।

इसी प्रकार उद्देश्य अनेक होनेपर अर्थात् कोई निर्धारित लक्ष्य न होनेपर या केवल लौकिक लक्ष्य होनेपर  बड़े-बड़े कार्य और परिश्रम भी वास्तविक कार्यकी सिद्धि नहीं कर सकते, किंतु ध्येय एक और केवल पारमार्थिक होनेपर साधारण-से-साधारण क्रियाएँ भी बहुत कुछ कर सकती हैं, अर्थात् उनसे भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है; क्योंकि जिसका लक्ष्य भक्त ध्रुवकी तरह ध्रुव यानी अटल है, वही निर्बाधरूपसे और शीघ्र सिद्धि प्राप्त कर सकता है । उसके मार्गमें कोई भी विघ्न-बाधाएँ नहीं आतीं, जो आती हैं, वे भी सहायक ही हो जाती हैं ।

संसारके मनुष्योंको तीन भागोंमें बाँटा जा सकता है‒द्वेषी, प्रेमी और उदासीन । ध्रुवजीको उनसे द्वेष रखनेवाली माता सुरुचिने भी यही उपदेश दिया कि इस पदको प्राप्त करनेके लिये तुम भगवान् विष्णुकी आराधना करो और उनसे प्रेम करनेवाली माता सुनीतिने भी इसीका समर्थन किया तथा उदासीन श्रीनारदजीने भी अन्तमें श्रीविष्णु-भक्तिका ही उपदेश दिया । कहनेका अभिप्राय यह है कि जिसकी साधना, तपस्याका लक्ष्य ध्रुव है, अटल है, उसके लिये कोई बाधक नहीं; द्वेषी-प्रेमी या उदासीन‒सभी विभिन्न प्रकारसे उसके सहायक ही बन जाते हैं ।

किन्तु हिरण्यकशिपुकी भाँति जिसका लक्ष्य पारमार्थिक नहीं, उसकी क्रियाएँ बलवती होनेपर भी वास्तविक सिद्धि नहीं दे सकतीं । ब्रह्माजीने स्वयं बतलाया कि हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष‒जैसी तपस्या सृष्टिमें अभीतक किसीने नहीं की । हजारों वर्षोंतक ऐसी कठोर तपस्या करनेपर भी उनका लक्ष्य पारमार्थिक न होनेसे वास्तविक सिद्धि नहीं हुई‒उनके विरोधी और उदासीन व्यक्तियोंकी तो बात ही क्या, सहायक भी छिन्न-भिन्न हो गये । 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे