।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
मातृशक्तिका घोर अपमान




(गत ब्लॉगसे आगेका)

मैं अभिमानसे नहीं कहता हूँ, प्रत्युत मैंने जैसा सुना है, समझा है, वैसा कहता हूँ कि हिन्दू-संस्कृतिने जीवके उद्धारके लिये जितना उद्योग किया है, इतना दूसरी किसी संस्कृतिने नहीं किया है । ईसाई, मुसलमान, यहूदी, बौद्ध, पारसी आदि किस सम्प्रदायने जीवोंके कल्याणके लिये उद्योग किया है ? कौन-सा सम्प्रदाय केवल जीवोंके कल्याणके लिये बना है ? आप खुद देख लें । वे अपनी संख्या बढ़ानेका, अपने मतका प्रचार करनेका उद्योग तो करते हैं, पर जीवमात्रके कल्याणका उद्योग नहीं करते । जो संस्कृति केवल जीवोंके कल्याणके लिये ही है, उसमें किसी जीवको न आने देना, उसको पहलेसे ही रोक देना, नष्ट कर देना कितना भयंकर पाप है ! आश्चर्यकी बात है कि इस पापको आज सामाजिक सभ्यता माना जा रहा है ! इसका यही अर्थ हुआ कि जल्दी-से-जल्दी नरकोंमें जाना है, भयंकर-से-भयंकर नरक भोगना है, अगर नरकोंमें जानेसे आड़ लग गयी तो गजब हो जायगा !

विचार करें, किसीकी भी उन्नति रोक देना क्या पुण्य है ? कोई धनी होना चाहे तो धनी नहीं होने देंगे, धर्मात्मा होना चाहे तो धर्मात्मा नहीं होने देंगे, कल्याण करना चाहे तो कल्याण नहीं होने देंगे, शरीरसे हृष्ट-पुष्ट होना चाहे तो हृष्ट-पुष्ट नहीं होने देंगे, क्या यह पुण्य है ? अपनी थोड़ी सुख-सुविधाके लिये दूसरे जीवोंका नाश कर देना; जो भगवत्प्राप्तिके मार्गमें जा सकते थे, उनको जन्म नहीं लेने देना कितने भारी अन्याय-अत्याचारकी बात है ! जान-जानकर घोर पाप मत करो अन्नदाता ! इतनी तो कृपा रखो । आपके घरोंका बालक हूँ, आपसे ही पला हूँ, अभी भी आपसे ही निर्वाह होता है । आप सब माँ-बाप हो ! थोड़ी कृपा करो कि ऐसा घोर पाप मत करो । पाराशरस्मृतिमें आया है‒

यत्पापं    ब्रह्महत्याया      द्विगुणं    गर्भपातने ।
प्रायश्चित्त न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते ॥
                                                            (४ । २०)

‘ब्रह्महत्यासे जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात करनेसे लगता है । इस गर्भपातरूपी महापापका कोई प्रायश्चित्त नहीं है, इसमें तो उस स्त्रीका त्याग कर देनेका, उसको अपनी स्त्री न माननेका ही विधान है ।’

अगर कम सन्तान ही चाहते हो तो ब्रह्मचर्यका पालन करो । उसका हम अनुमोदन करेंगे । आप ब्रह्मचर्यका पालन करो तो आपको पाप नहीं लगेगा, प्रत्युत शरीर नीरोग होगा, हृष्ट-पुष्ट होगा । परन्तु शरीरका नाश करना और सन्तान पैदा नहीं करना‒यह कितनी लज्जाकी, कितने दुःखकी बात है !

श्रूयतां धर्मसर्वस्यं  श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥

धर्मसर्वस्व सुनो और सुनकर धारण कर लो । जो आचरण अपनेसे प्रतिकूल हो, उसको दूसरोंके प्रति मत करो । कोई आपकी उन्नति रोक दे, आपका जन्म रोक दे, आपका बढ़ना रोक दे, आपका पढ़ना रोक दे, आपका भजन-ध्यान रोक दे, आपके इष्टकी प्राप्ति रोक दे तो उसको पाप लगेगा कि पुण्य लगेगा ? जरा सोचें । कोई जीव मनुष्यजन्ममें आ रहा है, उसमें रुकावट डाल देना, उसको जन्म ही नहीं लेने देना कितने बड़े पापकी बात है ! हाँ, आप ब्रह्मचर्यका पालन करो तो आपका शरीर भी ठीक रहेगा और पाप भी नहीं लगेगा । परन्तु भोग तो भोगेंगे शरीरका नाश तो करेंगे, पर सन्तान पैदा नहीं होने देंगे‒यह बड़े भयंकर पतनकी बात है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘मातृशक्तिका घोर अपमान’ पुस्तकसे