।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७२, शनिवार

अभेद और अभिन्नता



मानवमात्रका कल्याण करनेके लिये तीन योग हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । यद्यपि तीनों ही योग कल्याण करनेवाले हैं, तथापि इनमें एक सूक्ष्म भेद है कि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग‒दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है । भक्तियोग सब योगोंका अन्तिम फल है । कर्मयोग तथा ज्ञानयोग‒दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं, पर भक्तियोग अलौकिक निष्ठा है । शरीर और शरीरी‒दोनों हमारे जाननेमें आते हैं, इसलिये ये दोनों ही लौकिक हैं । परन्तु परमात्मा हमारे जाननेमें नहीं आते, प्रत्युत केवल माननेमें आते हैं, इसलिये वे अलौकिक हैं । शरीरको लेकर कर्मयोग, शरीरीको लेकर ज्ञानयोग और परमात्माको लेकर भक्तियोग चलता है । कर्मयोग भौतिक साधना है, ज्ञानयोग आध्यात्मिक साधना है और भक्तियोग आस्तिक साधना है ।

गीताने कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंको समकक्ष बताया है‒लोकेऽस्मिद्धिविधा निष्ठा’ (३ । ३) । कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंसे एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है‒एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्’ (गीता ५ । ४), यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’ (गीता ५ । ५) । साधक चाहे कर्मयोगसे चले, चाहे ज्ञानयोगसे चले, दोनोंका एक ही फल होता है ।

कर्मोंसे मनुष्य क्रिया और पदार्थमें फँसता है, पर कर्मयोग इन दोनोंसे ऊँचा उठाता है । इसलिये कल्याण करनेकी शक्ति कर्ममें नहीं है, प्रत्युत कर्मयोगमें है; क्योंकि कर्मोंमें योग ही कुशलता है‒योगः कर्मसु कौशलम्’ (गीता २ । ५०) । साधारण मनुष्य कर्म करते ही रहते हैं और कर्मोंका फल भी भोगते ही रहते हैं अर्थात् जन्मते-मरते रहते हैं । कर्म करनेसे उनका कल्याण नहीं होता । परन्तु कर्मयोगसे कल्याण हो जाता है । कर्मयोगमें निःस्वार्थभावसे सेवा करनेपर संसारका त्याग हो जाता है । सांख्ययोगमें साधक सबको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित होता है । कर्मयोगमें करनेकी मुख्यता है और सांख्ययोगमें विवेक-विचारकी मुख्यता है । इस प्रकार कर्मयोग और सांख्ययोगमें बड़ा फर्क है । फर्क होते हुए भी दोनोंका फल एक ही है । दोनोंके द्वारा संसारसे ऊँचा उठनेपर मुक्ति हो जाती है । ये दोनों लौकिक साधन हैं क्योंकि शरीर जड़ और शरीरी (चेतन)‒ये दोनों विभाग हमारे देखनेमें आते हैं, पर भगवान् देखनेमें नहीं आते । भगवान्‌को मानें या न मानें, यह हमारी मरजी है । इसमें विचार नहीं चलता । भगवान् हैं‒ऐसा मानना ही पड़ता है । फिर वह माना हुआ नहीं रहता, उसका अनुभव हो जाता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे