।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७२, रविवार

अभेद और अभिन्नता



(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्म’ में परिश्रम है और कर्मयोग’ में विश्राम है । परिश्रम पशुओंके लिये है और विश्राम मनुष्यके लिये है । शरीरकी जरूरत परिश्रममें ही है । विश्राममें शरीरकी जरूरत है ही नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि शरीर हमारे लिये है ही नहीं । कर्मयोगमें शरीरके द्वारा होनेवाला परिश्रम दूसरोंकी सेवाके लिये है और विश्राम अपने लिये है ।

कर्मयोग तथा सांख्ययोगसे अभेद’ होता है और भक्तियोगसे अभिन्नता’ होती है । जहाँ-जहाँ ज्ञानका वर्णन है, वहाँ-वहाँ सत् और असत्‌, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, क्षर और अक्षर आदि दोका वर्णन है; जैसे‒नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । परन्तु भक्तियोगमें दोका वर्णन नहीं है, प्रत्युत एक भगवान्‌के सिवाय कुछ भि नहीं है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । ज्ञानयोगमें सत् अलग है और असत् अलग है, पर भक्तियोगमें सत् भी भगवान् हैं और असत् भी भगवान् हैं‒सदसच्चाहमर्जुन (गीता ९ । १९) । अभेदकी अपेक्षा अभिन्नतामें एक विलक्षणता है । अभिन्नतामें कभी भेद होता है, कभी अभेद होता है । इसलिये अभिन्नतामें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है । कर्मयोग और सांख्ययोगके द्वारा जो अभेद होता है, उसका आनन्द प्रतिक्षण वर्धमान नहीं है । जैसे दूध उबलता है तो दूधमें उथल-पुथल होती है, ऐसे ही उथल-पुथलवाला जो आनन्द है, वह भक्तिका है और जो शान्त, एकरस आनन्द है, वह ज्ञानका है ।

भक्तियोगकी अभिन्नतामें दो बातें होती हैं‒जब भक्त अपनेको देखता है, तब वह भगवान्‌को अपना मालिक देखता है कि मैं भगवान्‌का दास हूँ और जब वह भगवान्‌को देखता है, तब वह अपनेको भूल जाता है कि केवल भगवान् ही हैं; भगवान्‌के सिवाय कुछ है ही नहीं, हुआ ही नहीं, हो सकता ही नहीं । इस प्रकार भेद और अभेद दोनों होते रहते हैं, जिससे प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहता है । गोस्वामीजी महाराजने लिखा है‒

माई री ! मोहि कोउ न समुझावै ।
राम-गवन साँचो किधौं सपनों, मन परतीति न आवै ॥१॥
लगेइ रहत मेरे नैननि आगे, राम लखन अरु सीता ।
तदपि न मिटत दाह या उर को, बिधि जो भयो बिपरीता ॥२॥
दुख न रहै रधुपतिहि बिलोकत, तनु न रहै बिनु देखे ।
करत न प्रान पयान, सुनहु सखि ! अरुझि परी यहि लेखे । ॥३॥
                                      (गीतावली, अयोध्या५३)

कौशल्या माताको राम, लक्ष्मण और सीता‒तीनों अपने सामने दीखते हैं तो वे सुमित्रासे पूछती हैं कि यह बताओ, अगर रामजी वनको चले गये हैं तो वे मेरेको दीखते क्यों हैं ? और अगर वे वनको नहीं गये हैं तो मेरे चित्तमें व्याकुलता क्यों है ? कौशल्याजीकी ये दो अवस्थाएँ हैं । इन दोनों अवस्थाओंमें प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।
  
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे