एक बात साधकमात्रके हृदयमें बैठ जानी चाहिये कि हम सब भगवान्के
पुत्र हैं‒‘अमृतस्य पुत्राः’ । कारण कि हम सब
भगवान्के ही अंश हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’
। हमसे यही गलती होती है कि हम जिनके अंश हैं उन भगवान्को अपना
न मानकर जड़ वस्तुओं (शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि)-को अपना मान लेते हैं‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि
प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५ । ७) । जड़ वस्तुओंको अपना माननेसे ही बन्धन हुआ है । यदि अपना न
मानें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है । जड़ वस्तु अपनी नहीं है ।
यदि अपनी होती तो सदा अपने साथ रहती । न शरीर साथ रहेगा,
न इन्द्रियाँ साथ रहेंगी,
न मन साथ रहेगा, न बुद्धि साथ रहेगी,
न प्राण साथ रहेंगे । कोई भी चीज साथमें नहीं रहेगी । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त चीजें हैं, पर
उनमेंसे केश-जितनी चीज भी हमारी नहीं है । फिर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण अपने कैसे हुए
?
एक वस्तु अपनी होती है और एक वस्तु अपनी मानी हुई
होती है । शरीर आदि अपने नहीं हैं, प्रत्युत अपने माने हुए हैं । जैसे कोई खेल होता है तो उस खेलमें कोई राजा बनता है,
कोई रानी बनती है, कोई सिपाही बनते हैं तो वे सब माने हुए होते हैं,
असली नहीं होते । इसी तरह संसारमें व्यक्ति और पदार्थ केवल व्यवहारके
लिये अपने माने हुए होते हैं । वे वास्तवमें अपने नहीं होते । अपना न स्थूलशरीर है,
न सूक्ष्मशरीर है, न कारणशरीर है । जब अपना कुछ है ही
नहीं तो फिर हमें क्या चाहिये
? अपने तो केवल भगवान्
ही हैं । हम उन्हींके अंश हैं । भगवान्के सिवाय और कोई भी अपना नहीं है । भगवान्के
सिवाय जो कुछ है, सब मिला हुआ है और छूटनेवाला है ।
विचार करें, आप आये तो कोई वस्तु साथ लाये क्या
? और जाते हुए कोई वस्तु साथ
ले जाओगे क्या ? सब कुछ यहीं पड़ा रहेगा । परन्तु उनको अपने काममें लेते रहनेसे
आदत पड़ गयी, जिससे उसकी ममता छोड़ना कठिन हो रहा है । गाढ़ नींदमें आपको इन्द्रियाँ-अन्तःकरणसे
कुछ भी अनुभव नहीं होता । इसलिये जगनेपर कहते हैं कि मैं ऐसा सुखसे सोया कि कुछ पता
नहीं था अर्थात् सबके अभावका और सुखके भावका अनुभव होता है । इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियोंके
बिना भी हमें सुखका अनुभव हुआ । कारण यह है कि जीव स्वाभाविक ही सुखरूप है‒
ईस्वर अंस जीव अबिनासी
।
चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
(मानस, उत्तर॰ ११७ । १)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे
तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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